के एक साधारण सा छात्र था जो ग्रेजुएशन के बाद हमारे संस्थान में एम बी ए करने के लिए आया था l वह पश्चिम बंगाल का था और चश्मे के पीछे उसकी आंखों में भविष्य के सुनहरे सपने थे l मुझे तब तक पता नहीं था कि उसके पिता एक मामूली नौकरी करते थे और उसकी मां एक आम ग्रहणी थी l अपने बेपरवाह लड़कपन में शायद उसे यह आभास नहीं था कि अपने माता-पिता की आशाओं और आकांक्षाओं का बोझ भी उसके अपने कंधों पर था l
के कुछ अधिक मुखर नहीं था इसलिए पहला टर्म समाप्त होने तक मुझे उसके बारे में कुछ विशेष जानकारी नहीं थी l किंतु एक दिन यह खबर मिली कि वह सड़क दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गया था और अस्पताल में भर्ती था l बाद में मालूम हुआ कि वह मौज मस्ती के लिए एक पुरानी मोटरसाइकिल खरीदने का इच्छुक था और परीक्षण के लिए उसे तेज चलाते हुए ही दुर्घटनाग्रस्त होकर गंभीर रूप से घायल अवस्था में वह अस्पताल लाया गया था l तब से वह कोमा में ही था l
उसका प्रशिक्षक होने के नाते मैं संस्थान के निदेशक के साथ अगले दिन अस्पताल में उसे देखने गया जहाँ आई सी यू में वह लगभग निर्जीव अवस्था में पड़ा हुआ था l धीमी गति से चलती हुई उसकी सांस का पता मुश्किल से ही लग पा रहा था l उसके शरीर में कई सुईयां और ट्यूब लगी हुई थी जिससे उसे भोजन और दवाइयां दी जा रही थी l बिस्तर के ऊपर लगे उपकरण उसके शरीर की सारी गतिविधियों का हर समय परीक्षण कर रहे थे l आई सी यू के शांत माहौल में उन मॉनिटर्स से बीच-बीच में आती आवाज़ों से शांति भंग हो रही थी l उसके पिता को पहले ही सूचना दी जा चुकी थी और किसी तरह वह अपने बेटे के पास पहुंच चुके थे l
डॉक्टरों ने बताया कि के को अंदरूनी चोट लगी थी और वह कब तक होश में आएगा यह जान पाना संभव नहीं था , हालांकि उसे बचाने की वे पूरी कोशिश कर रहे थे l मुझे इस बात का पूरा ज्ञान था कि डॉक्टरों की पूरी कोशिश भी उसके पिता के लिए कुछ खास ढांढस का काम नहीं कर पा रही थी l उनका मन अपने युवा बेटे को उस हालत में देखकर बहुत ही व्यथित था l
अस्पताल से जाते समय मैंने दुखी पिता को यह संतावना दी कि उपचार के खर्चे की वह बिल्कुल चिंता ना करें क्योंकि संस्थान ने सभी छात्रों का बीमा कराया हुआ था इसलिए सारा खर्चा बीमा कंपनी को ही वहन करना था l मेरी बात से उनको कितनी तसल्ली मिली यह भाव उनके चेहरे पर पढ़ने की मेरी हिम्मत नहीं हुई l उस मौके पर उनके लिए उनके सामने खर्चे से अधिक उनके अपने बेटे के जीवन का प्रश्न महत्वपूर्ण था l
दिन बीतते गये और फिर सप्ताह भी निकलते गए किंतु के की हालत में कोई सुधार दिखाई नहीं पड़ रहा था और उसकी मूर्छा भी वैसे ही बनी हुई थी l यह हम सभी के लिये हताशा का विषय था l लगभग डेढ़ महीने बाद संस्थान में अच्छी खबर आई कि के कोमा से बाहर आ गया था l अब तक उसका वजन काफी कम हो गया था उसकी याददाश्त भी पूरी तरह से वापस लौटी नहीं थी l मस्तिष्क में चोट के कारण उसकी बोलचाल भी प्रभावित थी l पूरी तरह ठीक होने में उसको अभी लंबा समय लगने वाला था l
दो महीने और बीतने पर के को अस्पताल से छुट्टी मिल गयी l तब तक के के पिता वापस कलकत्ता अपनी नौकरी पर चले गए थे l उनकी जगह उनकी पत्नी अपने बेटे की देखभाल के लिए आ चुकी थी l दोनों के रहने के लिये संस्थान में ही व्यवस्था कर दी गई थी l
तब तक दूसरे टर्म की परीक्षा का समय आ गया था और सभी छात्र अपनी तैयारी में जुटे थे l यह साफ था कि के परीक्षा नहीं दे पाएगा क्योंकि दुर्घटना के कारण वह कक्षा में आ नहीं पाया था और ना ही पढ़ाई कर पाया था l संस्थान का नियम था कि कोई भी छात्र जिसकी कक्षा में हाजिरी नब्बे प्रतिशत से कम हो वह परीक्षा नहीं दे सकता था l
मुझे आश्चर्य हुआ जब एक दिन मैंने के को निदेशक के दफ्तर के बाहर बड़ी उद्विग्न अवस्था में प्रतीक्षा करते हुए पाया l मेरे पूछने पर उसने बताया कि वह निदेशक से मिलकर प्रार्थना करना चाहता था कि हाजिरी वाले नियम को दरकिनार करते हुए उसे परीक्षा में बैठने की अनुमति दी जाए l
"के, तुम्हें तो कुछ मालूम भी नहीं कि पिछले दिनों कक्षा में क्या-क्या पढ़ाया गया है फिर तुम परीक्षा में कैसे बैठोगे?", मेरे इस प्रश्न को के ने गंभीरता से नहीं लिया l
"सर , मेरे सारे मित्रों ने मुझे आश्वासन दिया है कि वह अपने नोट्स मुझे दे देंगे ", के ने अपनी लड़खड़ाती ज़ुबान से धीरे-धीरे मुझे समझाने की कोशिश की l दुर्घटना के दुष्प्रभाव से वह पूरी तरह अभी तक उभरा नहीं था l
"के, मेरे विचार से तो तुम्हें परीक्षा के बारे में अभी बिल्कुल नहीं सोचना चाहिए l अच्छा तो यह होगा कि तुम अपने घर वापस जाओ और स्वास्थ्य लाभ करो l अगले वर्ष नए बैच के छात्रों के साथ तुम यहां पर आकर पढ़ाई करो और फिर परीक्षा में बैठो" l
मेरा सुझाव के को अच्छा नहीं लगा l के ने लगभग रुआंसे होकर कहा, "सर, ऐसा करने से तो मेरा एक साल बर्बाद हो जाएगा l मेरे सारे मित्र और साथी आगे निकल जाएंगे और मैं पीछे रह जाऊंगा "I
मैंने के की तरफ देखते हुए मुस्कुराते हुए कहा , "तुम्हें मालूम है कि तीन महीने पहले जब मैंने तुम्हें कोमा में देखा था तो किसी को यह पता नहीं था कि तुम्हारी अगली सांस आएगी भी या नहीं ? भगवान की कृपा से, तुम्हारे माता-पिता के आशीष से और तुम्हारे मित्रों की दुआओं से तुम्हें नया जीवनदान मिला है l तुम्हारी परिस्थिति में यह कहना कि तुम्हारा एक वर्ष बेकार हो जाएगा कोई मायने नहीं रखता l जब तुम नए बैच के छात्रों के साथ पढ़ोगे तो तुम्हारे नए मित्र भी बन जाएंगे l इस संस्थान में आने से पहले इस बैच में तुम्हारा कोई मित्र तो था नहीं l जैसे इस बैच में मित्र बने हैं वैसे ही नए बैच में भी मित्र बन जाएंगे l मेरा सुझाव मानो या ना मानो , यह तुम्हारी इच्छा ", यह कहते हुए मैं सीढ़ियों से नीचे उतर आया l मुझे नहीं मालूम कि इस सुझाव से के सहमत था कि नहीं l
मेरे मन में विचार उमड़ रहे थे l पहला तो यह कि जिस समस्या से हम बहुत करीब से जुड़े होते हैं उसका समाधान हमें अपने आप को समस्या से दूर करने पर ही मिल पाता है l बहुत करीब से समस्या के सारे आयामों पर दृष्टि नहीं जा पाती है l किसी भी मुश्किल स्थिति से बाहर का रास्ता निकालने के लिए थोड़ी निर्लिप्तता की आवश्यकता पड़ती है l
दूसरा विचार था कि नश्वर्ता और विसंगति जीवन के लक्षण हैं l यह कहना कठिन है कि इन दोनों में कौन सा गुण किस पर हावी है l यह जानते हुए भी कि जीवन क्षणभंगुर है हम सदैव कुछ पाने की दौड़ में लगे रहते है l लाभ ,हानि ,स्पर्धा और कामयाबी की फिक्र में घुले रहते हैं l हम हमेशा इस बात से परेशान रहते हैं कि कहीं हम अपने साथियों से पीछे तो नहीं छूट गए l लगभग यही बात तो युधिष्ठिर ने यक्ष प्रश्न के उत्तर में भी अडिग विश्वास और अदम्य साहस से कही थी l
जैसे कि मेरा अनुमान था , निदेशक ने के द्वारा किए गए आग्रह को स्वीकार नहीं किया l अंततः उसे कोर्स बीच में छोड़ कर घर वापस जाना पड़ा l किंतु अगले वर्ष के फिर से वापस लौटा और नए बैच के साथ उसने पढ़ाई पूरी करके परीक्षा दी और उत्तीर्ण भी हुआ l इतने सालों बाद मुझे आशा है कि वह अब पूरी तरह स्वस्थ होगा और अपने जीवन में प्रसन्न होगा l मुझे खुशी होगी यदि यह कहानी अपने मुख्य पात्र को ढूँढने में सफल हो और वह अपनी सलामती की खबर मुझे दे सके l
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All good, Sir :)