पंद्रह वर्षों में पंकज की ‘बातें करती दिल खुश चाय की दुकान’ ऐसी पनपी मानो वाकई में उसके पिता, मास्टर ताराचंद, का दिया हुआ अलादीन का चिराग उसके व्यवसाय में उसकी सहायता कर रहा हो I देखते ही देखते विभिन्न शहरों में एक दुकान से दस, और दस से पचास दुकानों तक पहुंचने में उसे अधिक समय नहीं लगा I वैसे उन्हें चाय की दुकान कहना संभवतः उतना उपयुक्त ना होगा - जब तक कि शब्दकोश में दुकान शब्द का अर्थ और व्यापक न कर दिया जाए I
पंकज की हर दुकान के मुख्य द्वार के ऊपर एक विशाल डिजिटल बोर्ड होता जिस पर रंग बिरंगी रोशनी से लिखा होता ‘बातें करती दिल खुश चाय की दुकान ‘ I उसके साथ ही बोर्ड पर एक बड़ा सुंदर चाय से भरा प्याला चित्रित होता जिसमें से गरम-गरम भाँप मधुर संगीत के साथ तब तक निकलती रहती जब तक ग्राहकों के बैठने की जगह दुकान के अंदर भर ना जाती I कप का खाली होना और भांप न निकलना इस बात का संकेत था कि अब उन्हें तुरंत दुकान में बैठने के लिए अवसर मिल जाएगा और उन्हें अंदर बैठे ग्राहकों के जाने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी I
इसके अलावा दुकान के बाहर डिजिटल बोर्ड पर एक और सूचना प्रतिदिन प्रदर्शित होती जो ग्राहकों के लिए बहुत कौतूहल का विषय थी और उनका ध्यान आकर्षित करती थी I प्रतिदिन बोर्ड पर उस दिन की एक प्याली चाय की न्यूनतम और अधिकतम कीमत दर्शायी जाती थी - जैसे आम शहरों में जगह जगह पर तापमान और वायु प्रदुषण के आंकड़े दिखाए जाते है I स्मरण रहे कि पिछली कहानी में बताये अनुसार चाय के प्याले की कीमत चाय की अपनी किस्म या गुणवत्ता पर नहीं बल्कि चाय के साथ सुनाई जाने वाली कहानी की गुणवत्ता और अवधि से निर्धारित थी I यह अपनी तरह का बेजोड़ प्रयोग था और जो बहुत सफल भी साबित हो रहा था I
जहां तक दुकानों पर मिलने वाली चाय की विभिन्न किस्मों की बात है, उसकी तो आप पूछिए मत I अदरक वाली, काली मिर्च युक्त चाय, इलायची वाली, गुड वाली, तुलसी वाली, लॉन्ग वाली, शहद वाली, नींबू वाली चाय के अलावा ऊटी की चॉकलेट चाय, आग में तपे हुए लाल कुल्हड़ों में तंदूरी चाय, केरल की झाग वाली मीटर चाय, सुर्ख लाल और गाढ़ी मलाई मार कर ईरानी चाय, कश्मीर का कहवा, राजस्थान के ऊंट के दूध की चाय और यहाँ तक कि तिब्बत के याक के दूध की बनी मक्खन वाली चाय भी ग्राहकों को उपलब्ध रहती I केवल चाय की साधारण दुकान न होकर वह चाय का संग्रहालय अधिक थी I
पंकज का चाय के साथ कहानी सुनने और सुनाने का आईडिया खूब चल पड़ा था I जितनी चाय की किस्में, उससे कहीं अधिक कहानियों और अनुभवों का संसार था जहां ग्राहक नित्य गोते लगा रहे थे I कहानियों का अनोखापन ग्राहकों पर अमिट प्रभाव छोड़ जाता I
चेन्नई की दुकान पर इरुला आदिवासियों का अनुभव बहुत लोकप्रिय था I एक बुजुर्ग आदिवासी चाय पीते ग्राहकों को बताता कि उसके समुदाय के लोग कैसे सांपों को पकड़ कर उन्हें बिना मारे उनका विष निकालने में पारंगत थे I छोटे छोटे इरुला बच्चों को भी यह कला घुट्टी की तरह मिल जाती थी I इस विष से अंततः सांप काटने पर दी जाने वाली औषधि दवाई कंपनी द्वारा बनाई जाती थी I
अलग-अलग सांपों की प्रजातियों की पहचान और विशेषताएं आदिवासी बड़ी बारीक़ी से समझाता I कोबरा और करैत जैसे जहरीले साँपों की गर्दन पकड़ कर उन्हे एक बर्तन को काटने पर मजबूर किया जाता तो उनका विष उस बर्तन में एकत्रित हो जाता I इक्कीस दिनों में अधिकतम चार बार एक सांप का विष निकाला जाता I काम जोखिम भरा होता क्यूंकि थोड़ी सी चूक से ज़हर निकालने वाले की जान जा सकती थी I क्योंकि सांपों को दुकान पर लाना खतरनाक हो सकता था इसलिए इरुला बुजुर्ग एक सिद्धहस्त कथावाचक की तरह प्रोजेक्टर से स्क्रीन पर साँपों की तस्वीरों और फिल्मों से ग्राहकों को रोमांचित करता था I
तन्मयता से किस्से सुनते हुए लोग बीच बीच में प्रश्न भी करते, टिप्पणियां करते और आपस में संवाद भी चलता रहता I एक दिन इरुला बुजुर्ग से किसी ग्राहक ने उसके किस्से के बीच में पूछा कि सबसे विषैला सांप कौन सा होता है तो उत्तर मिलने से पहले ही दूसरा दार्शनिक सा दिखने वाला श्रोता बोल पड़ा, "अजी, कोई भी सांप आदमी से अधिक विषैला थोड़ी है ! अज्ञेय ने लिखा था-
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना ?
विष कहाँ पाया?”
बाकी लोग इस पर खिलखिला कर हँस पड़े I इरुला आदिवासी बुजुर्ग हिंदी के इस कटाक्ष को समझ न पाया I वह तमिल भाषी तो बस इतना जानता था कि सांप का विष औरों के लिए जो हो सो हो पर उसके और उसके परिवार की भूख की दवा था I
पंकज की दिल्ली की दुकान पर एक दूसरे ही रंग की कहानी की मांग थी I वहां तिहाड़ जेल से सेवानिवृत जल्लाद फांसी संबंधित तैयारी और उन लोगों के बारे में बताता जिन्हें स्वयं उसने अपने हाथों से फांसी पर चढ़ाया था I लोग ध्यान से सुनते कि कैसे हर फांसी से पहले बाकायदा एक रिहर्सल होता था जिसमें कैदी की जगह एक भरे हुए भारी बोरे का प्रयोग होता जिसका वजन कैदी के वजन के हिसाब से होता था I फांसी देते समय एक लीवर खींचने से कैदी के नीचे का तख्ता खिसक जाता और वह दो मीटर नीचे तक गिरता था I यह सुनिश्चित करना पड़ता कि ऐन समय रस्सी ना टूट जाए और गर्दन पर गांठ भी ऐसे लगे कि नीचे का तख्ता हटते ही कैदी रस्सी पर झटके से झूल जाए I उसकी गर्दन तुरंत टूटे तो उसे मरने में अधिक समय न लगे I
“रिहर्सल एक बात थी किन्तु जब मेरे लीवर खींचने से एक जिन्दा आदमी रस्सी पर झूलता तो दिल काँप जाता था I” जल्लाद के चेहरे पर दुःख और उम्र की रेखाएं गहरी हो जाती I
इन सब तैयारियों के बाद भी कभी-कभी कैदी बहुत देर तक रस्सी पर लटका हुआ तड़पता रहता और फांसी के समय उपस्थित सभी कर्मचारियों को वह वीभत्स दृश्य देखना पड़ता था I गनीमत बस यही थी कि कैदी का मुंह गर्दन तक काले कपड़े से ढका होता था और मृत्यु के समय उसके चेहरे के दर्दनाक भाव सभी से छिपे रहते I
जल्लाद इस बात को स्वीकारता कि वह न्यायालय के आदेश का ही पालन करता था पर फिर भी हर फांसी देने के बाद उसे शराब की शरण लेनी पड़ती थी क्यूंकि किसी भी मनुष्य की जान लेना आसान नहीं होता और अपनी अंतरात्मा को चुप कराने के लिए उसे नशे मैं डूबना ही पड़ता I
स्तब्ध सुनने वालों को वह कहता ,"सेवा निवृत्ति के बाद मैने शराब छोड़ दी है पर मुझे नींद नहीं आती है I मेरी आँखों के सामने आज भी रस्सी पर झूलते कैदी दिखाई पड़ते है I"
कहानी में कहीं न कहीं यह भाव होता कि हिंसा चाहे किसी भी रूप में हो, वह लौटती अवश्य है एक प्रतिध्वनी की तरह I शायद कर्ता से अपना हिसाब मांगने I लोग उसकी मानसिक पीड़ा देख कर सिहर उठते I कांपते हाथों में चाय छलक पड़ती I किन्तु, जैसे भूत प्रेत की डरावनी फिल्में देखने को कुछ लोग लालायित रहते है, उसी तरह जल्लाद की आपबीती को जानने के लिए भी बहुत लोग उत्सुक रहते; कुछ ग्राहक तो बार बार वही कहानी सुनने आते I
अपराध जगत की एक और कहानी कोलकाता वाली दुकान पर प्रचलित थी किंतु वह दुखांत नहीं थी I जंगली हाथियों को मार कर उनके दाँत बेचने वाला एक कुख्यात तस्कर वन विभाग के परिश्रम और प्रेरणा से शिकार और तस्करी छोड़कर अब वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा में कार्यरत था I अपने पिछले दिनों के खतरों के बारे में वह बताता कि कैसे जंगल में अकेले घूम रहे दाँत वाले नर हाथी के ठीक सामने खड़े होकर वह सधै हाथों से बन्दूक पकड़ कर गोली चलाता और पांच टन के वजन वाला विशाल हाथी वही ढेर हो जाता I उसे मालूम था कि यदि निशाना चूकता तो हाथी के पैरों तले शिकारी का कुचला जाना निश्चित था मगर अपनी निशानेबाजी पर उसे पूरा विश्वास था I
वह मानता था कि जंगल में अवैध शिकार करते-करते वह स्वयं एक पशु बन गया था I वह ग्लानि से कहता, “मैं तो पशु से भी बदतर हो गया था I पशु तो भूख के कारण शिकार करता है जबकि मैं पैसे के लालच में शिकारी बना था I अब मैं उन्ही पशुओं की सुरक्षा करता हूँ जिनका मैं पहले शिकार किया करता था I आशा करता हूँ कि जैसे वाल्मीकि और अंगुलिमाल का भगवान् ने उद्धार किया था, वैसे ही मेरा भी करेंगे I” यह सुन कर श्रोता सहानुभूति में सर हिलाते I
ऐसा नहीं कि केवल अपराध से जुड़ी वीभत्स कहानियां ही सुनी और सुनाई जा रही थी I प्रेम, करुणा, बलिदान, हास्य, साहस एवं जीवन से जुड़ी छोटी-मोटी कहानी भी लोग चाव से सुनते और सुनाते थे I
अदम्य साहस की कहानी देहरादून में चल रही थी जहां एक युवा स्त्री मस्ती से झूमते हुए दुकान पर आती और श्रोताओं के आगे कुर्सी पर बैठकर कहानी सुनाने से पहले अपने दोनों नकली पैर खोल कर अलग रख देती I सुनने वाले अवाक रह जाते जब वे देखते कि उस स्त्री के दोनों पैर घुटनों के नीचे किसी रेल दुर्घटना में कट गए थे I किंतु वह जीवन से निराश नहीं हुई थी I जयपुर की एक संस्था से उसे नकली पैर प्राप्त हुए I
वह स्त्री धीरे-धीरे न केवल एक साधारण दिनचर्या पर लौटी बल्कि अथक परिश्रम और साहस से उन्हीं कटे पैरों से माउंट एवरेस्ट की चोटी भी फतह कर आई थी I कई हतोत्साहित लोग उसके अनुभव से प्रेरणा पाते I चाय पीते पीते मुस्कुराते हुए वह स्त्री दुष्यंत कुमार की दो पंक्तियां भी सुनाती, “कौन कहता है कि आसमान में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों I”
सुनने वाले ग्राहक मुग्ध हुए बिना ना रहते और हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता I चाय की गर्म भाँप के अतिरिक्त कहानी का नशा भी उन पर देर तक चढ़ा रहता I
Jindagi aur kutch bhi nahiiiiiiiii,,,,,,,,Teri meri kahani haiiiiiiiiiiii...........Excellent explanation of the scene & scenario with heart touching stories......Of course with variety of tea.......
आज की चाय की चुस्की में मज़ा अलग ही था।