हाल ही में आठ चीते नामीबिया से लाकर मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क के एक अस्थाई बाड़े में छोड़े गए हैं l समाचार पत्रों और सोशल मीडिया पर भी यह चर्चा का विषय रहा क्योंकि एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक किसी भी लुप्त प्रजाति को मनुष्य द्वारा फिर से स्थापित करने की चेष्टा का यह पहला उदाहरण है l इस पूरे प्रकरण में थोड़ा सा विवाद भी उत्पन्न हुआ है क्योंकि कुछ वैज्ञानिक यह मानते हैं कि अफ्रीका का चीता और भारत का लुप्त चीता अलग-अलग प्रजातियां हैं और उन्हें इस तरह से स्थापित करने की चेष्टा उचित नहीं है बल्कि अप्राकृतिक है l
भारत के लुप्त चीता को पुनः स्थापित करने के इस प्रयास का परिणाम तो कुछ वर्षों बाद ही पता चलेगा किंतु मेरी प्रार्थना और शुभकामनाएं हैं कि यह सफल हो क्योंकि मेरे अपने बैचमेट, श्री जसबीर सिंह चौहान, मुख्य प्रधान वन संरक्षक अधिकारी ,मध्य प्रदेश, और मेरे अपने केरल कैडर से श्री अमित मलिक, इंस्पेक्टर जनरल, नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी, का अथक परिश्रम इस कोशिश से जुड़ा हुआ है l
जैवविविधता का संरक्षण एक संजीदा विषय है किंतु कभी कभार मानवीय दृष्टिकोण से जुड़े इसमें कुछ मजेदार किस्सें भी मिल जाते हैं l पिछले दिनों मैं रेडियो पर उस वन्य प्राणी फोटोग्राफर के वार्तालाप को सुन रहा था जो प्रधानमंत्री श्री मोदी द्वारा बाड़े में चीतों को छोड़े जाते समय वहां मौजूद था l उसके कहे अनुसार उसने चीतों के सामने उनकी ही आवाज निकाली जिससे उन्हें लगे कि यहां पर उनका स्वागत हो रहा है l ऐसे स्वागत से चीतों पर क्या गुज़री होगी यह तो कल्पना का विषय है l खासकर तब जब भारत आते ही उनमें से एक का नामीबिया वाला नाम बदल कर नया नाम, आशा, रख दिया गया हो l ठीक वैसे ही जैसे पुराने जमाने में ससुराल में आते ही बहू का नाम बदल दिया जाता था l
समाचार पत्रों और सोशल मीडिया पर कई वीडियो और तस्वीरें उपलब्ध है जिसमें दिखाया गया है कि कैसे इन आठ चीतों को हवाई जहाज से भारत लाया गया था l एक वीडियो में मैंने भी देखा कि कैसे एक चीता डरा सहमा सा बैठा था l मुझे नहीं मालूम कि उसके मस्तिष्क में आदिम भय के साथ साथ और कौन से विचार घुमड़ रहे थे l उसे क्या पता कि वह एक बहुत लंबी यात्रा करके यहां पहुंचा था l मानव जाति का पालना कहलाए जाने वाले अफ्रीका महाद्वीप से कर्म और पुनर्जन्म मानने वाले महाद्वीप तक की लंबी यात्रा l चीते की घबराहट और भय की स्थिति से मैं परिचित था क्योंकि हम सभी कुछ ऐसी मिलती-जुलती परिस्थितियों से गुजर चुके हैं l भविष्य की अनिश्चितता से हम सबने सामना किया है l
1989 में जब मैं पहली बार केरल में वन सेवा प्रदान करने पहुंचा तो वहां की भाषा, स्थान और लोगों से अनभिज्ञ था l ऊपर से दुर्गम स्थानों पर नियुक्ति जहां मूलभूत सुविधाओं की कमी थी l उस समय जीपीएस और इंटरनेट भी नहीं था इसलिए सूचना का भी अभाव था और यह एक परेशानी का सबब था l यह बात और कि इतने वर्षों के अंतराल के बाद सफेद बालों से यह समझ भी आ गयी है की सूचना ना होना तो परेशानी पैदा करता ही है किंतु अधिक जानकारी भी मन को विचलित कर सकती है क्योंकि फिर हम आशाओं, आशंकाओं और किंकर्तव्यविमूढ़ता के चक्रव्यू में फस जाते हैं l न्यूनतम जानकारी तो निसंदेह आवश्यक है किंतु इस विषम स्थिति से बचने का यही उपाय है कि अधिक जानकारी के पचड़े में ना पड़ते हुए जीवन के निरंतर प्रवाह को यदि बांधने की चेष्टा ना करें और केवल साक्षी भाव से देखते रहे तो तनाव ना होगा l वैसे यह सिद्धांत तो गीता और आध्यात्मिकता भी हमें समझाती हैं किंतु इसको हम कितना आत्मसात कर पाते हैं, यह और बात हैं l
केरल के प्रारंभिक दिनों में एक दिन मै प्रशिक्षण के दौरान वन मुख्यालय में शुरू शुरू की प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण शायद कुछ उद्विग्न सा बैठा था l मेरी मनस्थिति को भांपते हुए मेरे वरिष्ठ अधिकारी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा," “धरनी तुम्हारे पास तो इंजीनियरिंग डिग्री है I तुम तो अच्छी नौकरी के लिए विदेश भी जा सकते थे” l मैंने उन्हें तुरंत ही कटाक्ष में उत्तर दिया, “ श्रीमान, केरल में भी मुझे विदेश जैसी ही अनुभूति हो रही है” l यह शब्द मेरे मुंह से निकलने के बाद मुझे आभास हुआ कि मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था और इस बात की मैंने भविष्य के लिए मन में गांठ बांध ली l
अपने घर और प्रदेश से दूर निकलने पर आपका दृष्टिकोण कुछ और बड़ा विस्तार लेता है जिसमें उदारता भी आती है l मुझे लगा कि शायद यही कारण है कि मलयाली दूसरे प्रदेशों से आए लोगों का स्वागत करते थेऔर सहज रखने की कोशिश करते थे क्योंकि उस समय वह स्वयं भी खाड़ी देशों में और उत्तर भारत में काफी संख्या में नौकरी और व्यवसाय की तलाश में गए हुए थे l
अपने घर , प्रदेश और परिचित परिवेश की लालसा के संदर्भ में मुझे अपने मलयाली बैचमेट नौशाद की कही हुई एक बात याद आ गई l नौशाद वन सेव की नियुक्ति से पहले रामागुंडम,आंध्र प्रदेश में नौकरी करता था l उस समय उसने अपनी मां से कहा था कि दूसरे प्रदेश में ,जहां की भाषा से आप अनभिज्ञ हो, नौकरी करना आसान नहीं है l हमेशा ऐसा प्रतीत होता है जैसे आप शीशे के बड़े से बर्तन में कैद हो l आपको आसपास स्थानीय लोग दिखाई तो पड़ते हैं जो अपनी दिनचर्या में व्यस्त हैं किंतु सड़कों और बाजारों में वह जो बातें करते हैं वह आपको समझ नहीं आती हैं और कुछ समय बाद आपका मस्तिष्क उन ध्वनियों और वार्तालापों के प्रति उदासीन हो जाता है या सुन्न हो जाता है l उसके इस कथन से मुझे एक पुराना गीत याद हो आया था l
किसी को अपने मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं जमीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता
जिसे भी देखिये अपने आप में गुम है
जुबा मिली है मगर हम जुबान नहीं मिलता l
नौशाद के अनुसार जब नौकरी के लिए वापस वह केरला पहुंचा तब कहीं जाकर उसका वह शीशे वाला तिलिस्म टूटा था l
मैं भी नौकरी के लिए अपने घर से दूर पहुंचा था इसलिए शायद संवेदनशीलता बढ़ने के कारण इस तरह की कहानियां और किस्से पकड़ने में मन बड़ा सक्षम हो गया था l केरल में एक अधिकारी, देवेंद्र वर्मा , मुझसे एक वर्ष पहले बिहार से आए थे और उसी तरह की घर से बिछड़ने की व्यथा से झूझ रहे थे l वह कहते थे कि कई बार वे रेलवे स्टेशन पर बिहार से आई हुई रेलगाड़ी को निहारा करते थे - यह सोच कर कि यह रेल उनके प्रदेश की हवा और खुशबू को छू कर आई है l मैं उनकी बात को समझ पा रहा था जिसे फिर वर्षों बाद गुलजार ने माचिस फिल्म के एक गीत में अपने शब्दों में लिखा था:
पानी पानी रे खारे पानी रे
नैनों में भर जा
नींदें खाली कर जा
पानी पानी इन पहाड़ों की ढलानों से उतर जाना
धुआं धुआं कुछ वादियाँ भी आएँगी गुज़र जाना
इक गाँव आएगा मेरा घर आएगा
जा मेरे घर जा
जैसे जैसे समय बीतता जाता है वैसे वैसे आप भी नए स्थान पर अपनी जगह बना लेते हैं और आपके व्यक्तित्व में विकास होता है - बशर्ते आप किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित ना रहे और नए विचारों और स्थितियों का स्वागत करते रहे l मैनेजमेंट में एक रोचक प्रसंग है जिसे कहते हैं उबला हुआ मेंढक l कहते हैं कि यदि एक मेंढक को एक पानी के बर्तन में डाल दें और बहुत धीरे-धीरे उसका तापमान बढ़ाएं तो मेंढक कभी पानी से बाहर नहीं निकलेगा l यहां तक कि धीरे-धीरे पानी उबलने लगेगा किंतु मेंढक मर जाएगा पर बाहर नहीं निकलेगा l इसके विपरीत यदि मेढक को सहसा उतने ही गर्म पानी में डाल दें तो वह तुरंत जान बचाने के लिए बाहर कूद पड़ेगा l इसके पीछे का कारण यह है कि कोई भी प्राणी जब अपने मन के अनुरूप स्थिति में होता है तो जीवन में अधिक चेष्टा नहीं करता है l अनभिज्ञ और विपरीत स्थितियों में ही मनुष्य का विकास होता है l
कुछ लोग इसे किताबी ज्ञान कह सकते हैं किंतु मैंने तो इसे जीवन में जिया है l मैंने अपने सेवाकाल में देखा कि मेरे कई सहकर्मी जो उत्तर भारत से थे, पहले केरल को पसंद नहीं करते थे l समय बीतने पर उनके अपने बच्चों ने मलयाली युवक-युवतियों से शादी की और वही बस गए l आज के दौर में यह कोई बड़ी बात नहीं लगती है जब नई पीढ़ी के लोग विदेश में रहते हुए विदेशियों से शादी करके वही बस रहे हैं l किंतु तीन दशक पहले मुझे आश्चर्य हुआ था जब मसूरी अकैडमी में मुझे मलयालम पढ़ाने वाले मलयाली अध्यापक ने बताया था कि उसके अपने बच्चे केरल वापस जाना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्हें मसूरी की ठंडी आबोहवा पसंद थी l
मैं आशा करता हूं कि जैसे अपने घरों और प्रदेशों से निकलकर कई लोग नयी जगहों पर रच बस गए, उसी तरह से नामीबिया के चीते भी कूनो में नया बसेरा बना लेंगे l हो सकता है कि उन्हें कूनो इतना भा जाए कि वर्षों बाद वे स्वयं भी नामीबिया जाना पसंद ना करें l काश मैं उन चीतों को उस वन्य प्राणी फोटोग्राफर की तरह उनकी ही भाषा में समझा पाता कि चिंता की कोई बात नहीं क्यूंकि हम कहीं भी हो मगर सब प्राणी जीवन के निरंतर सफर में ही तो है l ठीक वैसे ही जैसा कि निदा फाजली ने लिखा है:
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहगुज़र के हम हैं I
Bahut sundar Sir. Aap Hindi me bhee bahut achchha likhate hai. Man ko bahut achchha laga.
Savinaya Aapka -
Phanindra
Bahut sundar Sir. Aap Hindi me bhee bahut achchha likhate hai. Man ko bahut achchha laga.
Savinaya Aapka -
Phanindra